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आरओआई क्या है?

आरओआई क्या है?
मोरबी पुल हादसे के बाद अहमदाबाद में उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Image-PTI)

निजी कंपनियों के लिए आरटीआई: निजी निकायों से जानकारी प्राप्त करें

सूचना का अधिकार आरटीआई अधिनियम की धारा 8 और 9 के तहत खुलासे से वर्जित है , अस्पताल और कॉलेज जैसी निजी फर्म के बारे में कोई अन्य डेटा आरटीआई अधिनियम के माध्यम से जनता तक पहुँचा जा सकता है। लेख उसी के लिए एक आवेदन भरने की प्रक्रिया को समाप्त करता है।

क्या सूचना के अधिकार का इस्तेमाल निजी कंपनियों या निजी निकायों जैसे स्कूल , कॉलेज और निजी कंपनियों से जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है ? तो उसका जवाब है, हाँ

केंद्रीय सूचना आयोग सरबजीत रॉय बनाम डीईआरसी के मामले में एक तरह के ऐतिहासिक फैसले में , इस बात की पुष्टि की गई कि निजीकृत सार्वजनिक उपयोगिता प्राधिकरण भी अधिनियम के दायरे में अच्छी तरह से आते हैं , और नागरिक द्वारा मांगी गई जानकारी के प्रकटीकरण के लिए बाध्य हैं। इसका मतलब है कि निजी संस्थाएं जो ‘ सार्वजनिक ‘ कार्य करती हैं , वे आरटीआई अधिनियम के तहत आएंगी।

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दूसरी बात , धारा 2 ( एफ) किसी भी रूप में जानकारी को परिभाषित करती है , “ किसी भी रूप में रिकॉर्ड , दस्तावेज़ , मेमो , ई-मेल , राय , सलाह , प्रेस विज्ञप्ति , परिपत्र , आदेश , लॉगबुक , अनुबंध , रिपोर्ट , कागज़ , नमूने , मॉडल सहित , किसी भी निजी निकाय से संबंधित डेटा सामग्री और किसी भी निजी निकाय से संबंधित जानकारी जिसे किसी भी अन्य कानून के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा एक्सेस किया जा सकता है। ”

निजी कंपनियों के लिए आरटीआई

एक कॉलेज और एक निजी निकाय है जो एक सार्वजनिक प्राधिकरण , एचआरडी मंत्रालय द्वारा शासित किया जाता है। यदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय उस कॉलेज में ‘ शिक्षकों की योग्यता ‘ कहने के लिए संबंधित जानकारी ‘ एक्सेस ‘ कर सकता है , यहां तक ​​कि आप निजी के लिए आरटीआई अधिनियम के तहत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

यह जानकारी कैसे प्राप्त करें?

’ निजी संस्थाओं ’ के दायरे में आने वाले मुख्य रूप से निजी स्कूल , कॉलेज , कॉप सोसायटी / बैंक , निजी क्षेत्र के बैंक और बीमा कंपनियां , सार्वजनिक / निजी ट्रस्ट , निजी सेवा प्रदाता और सार्वजनिक सीमित कंपनियां हैं।

पहले चरण के लिए नागरिक को अपने शोध करने के लिए सूचना की आवश्यकता होती है और सरकारी विभाग का पता लगाना चाहिए जिसके तहत विशेष निजी निकाय पंजीकृत है।

विभाग की वेबसाइट नागरिक को सार्वजनिक सूचना अधिकारी (“पीआईओ”) को मुहैया कराएगी जिसे संपर्क करना होगा। संबंधित पीआईओ का संपर्क विवरण वेबसाइट पर उपलब्ध होगा।

इसके बाद के चरण उन प्रक्रियाओं के समान हैं जिनका किसी सार्वजनिक प्राधिकरण को दायर सामान्य आरटीआई आवेदन के मामले में पालन किया जाना है।

आवेदन शुल्क और उस सरकार (केंद्र या राज्य) द्वारा निर्धारित प्रारूप के अनुसार दर्ज किया जाना चाहिए। शुल्क का विवरण भुगतान के मोड और पोस्टल ऑर्डर नंबर या किसी अन्य आवश्यक विवरण के साथ होना चाहिए जो आवश्यक हो। आवश्यक सूचना संबंधित पीआईओ द्वारा प्रस्तुत की जाएगी , क्योंकि सरकारी विभाग राज्य के विभिन्न क़ानूनों के तहत निजी निकायों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

आवेदकों द्वारा यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आरटीआई अधिनियम की धारा 8 और 9 के तहत प्रकटीकरण से वर्जित जानकारी को इस धारा के तहत प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

इसे सारांशित करते हुए , आरटीआई अधिनियम का आगमन सरकार द्वारा सबसे अधिक लाभकारी कदमों में से एक था। सवाल यह था कि क्या कोई आवेदक निजी निकायों की जानकारी मांग सकता है। इसका उत्तर हां है , जब तक कि वे एक ‘ सार्वजनिक ‘ कार्य करते हैं जो आरटीआई अधिनियम के दायरे में आता है।

आरटीआई की धार पर वार है जन सूचना पर सर्वोच्च आरओआई क्या है? न्यायालय की टिप्पणी

Supreme Court’s comment on RTI is wise on RTI’s edge

नई दिल्ली। भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी से लेकर नौकरशाह, राजनेता और हर संवैधानिक संस्था चिंता जाहिर करते देखे जाते हैं, पर व्यावहारिक बात करें तो जैसे हर कोई भ्रष्टाचार का हिस्सा बनता जा रहा हो।

RTI is one weapon against corrupts.

आरटीआई देश में एक ऐसा हथियार है जिससे थोड़ा बहुत डर भ्रष्टाचारियों को लगता है। यही वजह है कि देश के प्रभावशाली तंत्र किसी तरह से आरटीआई रूपी इस हथियार को निष्प्रभावी बनाने के तरह-तरह के प्रयास में लगे हैं। यदि सर्वोच्च न्यायालय आरटीआई को लेकर आशंकित होने लगे तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। सर्वोच्च न्यायालय ने आरटीआई को लेकर अहम टिप्पणी (Supreme Court’s comment on RTI) की है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सभी को सभी सूचनाएं पाने का अधिकार सीमित होना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे ने सवालिया लहजे में कहा है कि क्या आरटीआई एक्ट किसी का व्यवसाय भी हो सकता है? उन्होंने आरटीआई डालने की चल रही परिपाटी पर उंगली उठाई है। उन्होंने कहा है कि ऐसे लोग, जिनका सूचना के विषय से कोई लेना-देना नहीं है, वे भी सूचना के लिए आरटीआई लगा दे रहे हैं।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि कानून का उद्देश्य यह था कि लोगों को वह सूचनाएं मिलें, जिनसे वे प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन अब हर कोई आरटीआई लगा दे रहा है, चाहे उसे अधिकार हो या नहीं। अधिकार का कोई महत्व नहीं रह गया है।

आरटीआई के हर किसी के लगा देने पर अदालत ने संकेत दिया कि वह इस मामले में दिशा-निर्देश जारी कर सकता है।

अपने को आरटीआई एक्टिविस्ट बताने वालों पर टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि हम देख रहे हैं कि लोग अपने लेटर हेड पर खुद को आरटीआई एक्सपर्ट (RTI Expert) लिख रहे हैं।

शीर्ष अदालत का कहना है कि कि ये ऐसे लोग हैं जिनका न कोई इससे लेना-देना नहीं है और न ही उनका इस विषय से कोई संबंध नहीं है। बस सूचनाओं के लिए याचिकाएं लगा रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त लहजे कहा है कि देखा जाए तो ये बुनियादी रूप से आईपीसी की धमकी (धारा 506) है। यानी धमकी देना है।

मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि हालत तो यह हो गई है कि अब कोई फैसला नहीं लेना चाहता, क्योंकि उसे डर है कि उसके खिलाफ आरटीआई लगा दी जाएगी।

न्यायमूर्ति बोबडे ने कहा कि मुंबई में मुझे लोगों ने बताया कि सूचना कानून के डर के कारण मंत्रालय में काम को वास्तविक रूप से लकवा मार गया है।

आरटीआई को लेकर मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस तरह से चिंता जाहिर करने को लेकर विधि विशेषज्ञ आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं।

मुख्य न्यायाधीश की इस बात पर अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि जो भ्रष्ट हैं, उन्हें ही डरने की जरूरत है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हर कोई व्यक्ति गैर कानूनी काम नहीं कर रहा है। हम कानून के या सूचनाओं के प्रवाह के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन क्या ये इस तरह से जारी रह सकता है? ये अप्रतिबंधित अधिकार, जिसमें कोई भी किसी से कुछ भी मांग सकता है? यहां तक कि अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अर्जियां लगाई जा रही हैं। आरटीआई को लेकर लोग आपसी खुन्नस निकाल रहे हैं। इस मामले में कुछ दिशा-निर्देंश होने ही चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय की इस बेहद सख्त टिप्पणी से लोगों में बेचैनी है।

यह माना जा रहा है कि यदि अदालत इस बारे में कोई दिशा-निर्देश जारी करता है तो निश्चित ही इससे आरटीआई की धार कुंद होगी और इसमें भ्रष्ट तंत्र संरक्षण पाने का अधिकारी बन जाएगा।

यह जगजाहिर है कि सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत सारे मामले इसलिए सामने आ सके हैं, क्योंकि लोगों ने आरटीआई के तहत सूचनाएं मांगी थी। आरटीआई में साफ कहा गया है कि सूचना मांगते वक्त यह नहीं पूछा जा सकता है कि आप यह सूचना क्यों मांग रहे हैं, लेकिन मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी है कि कोई भी कोई सूचना यूं ही मांग ले रहा है, जो उचित नहीं है।

वैसे भी गत 22 जुलाई को मोदी सरकार ने लोकसभा से आरटीआई अधिनियम में संशोधन की अनुमति दिलवा दी है। इसके एक दिन बाद सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने नाराजगी जताते हुए कहा कि ऐसा करके सरकार जनता को धोखा दे रही है। हालांकि अन्ना से जब आरटीआई के प्रावधान में बदलाव को लेकर आंदोलन करने की बात पूछी गई तो उन्होंने कहा, ‘मैं अब खुद आंदोलन नहीं करना चाहता। अब मेरे पास शक्ति नहीं रही कि मैं आंदोलन करूं’।

मोदी सरकार ने 2018 में भी ऐसा करने की कोशिश की थी, लेकिन सफलता नहीं मिली।

Fact Check: PM की मोरबी यात्रा पर 30 करोड़ रुपये खर्च का दावा दुष्प्रचार, वायरल RTI फेक और मनगढ़ंत

आरटीआई के जवाब के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मोरबी यात्रा पर 30 करोड़ रुपये खर्च होने का दावा फेक और मनगढ़ंत है। मोरबी जिला प्रशासन ने इस दावे का खंडन करते हुए बताया है कि उसकी तरफ से ऐसे किसी आरटीआई का जवाब नहीं दिया गया और साथ ही इस दावे के साथ गुजरात समाचार में छपी खबर का स्क्रीनशॉट भी फेक और एडिटेड है।

नई दिल्ली (विश्वास न्यूज)। गुजरात के मोरबी में हुए हादसे के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घटनास्थल का दौरा किया था। सोशल मीडिया पर इससे संबंधित वायरल एक पोस्ट में दावा किया जा रहा है कि पीएम मोदी की मोरबी आरओआई क्या है? यात्रा पर जिला प्रशासन की तरफ से 30 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे और यह जानकारी सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत दायर किए गए आवेदन से प्राप्त हुई है।

विश्वास न्यूज की जांच में यह दावा गलत और चुनावी दुष्प्रचार निकला, जिसका मकसद मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित करना होता है। वायरल पोस्ट में जिस आरटीआई का हवाला देते हुए यह दावा किया गया है कि वह मनगढ़ंत है। मोरबी जिला प्रशासन ने ऐसी किसी भी आरटीआई को दाखिल किए जाने और उसका जवाब देने के दावे का खंडन किया है। वहीं जिस गुजराती अखबार में छपी खबर का स्क्रीनशॉट इस दावे के साथ वायरल किया जा रहा है, वह भी एडिटिंग की मदद से तैयार किया गया फेक स्क्रीनशॉट है। ऐसी कोई खबर संबंधित गुजराती अखबार में प्रकाशित नहीं हुई है।

क्या है वायरल?

सोशल मीडिया यूजर ‘Radheshyam Yadav’ ने वायरल पोस्ट (आर्काइव लिंक) को शेयर किया है, जिसमें तृणमूल कांग्रेस नेता साकेत गोखले की ट्विटर पोस्ट का स्क्रीनशॉट लगा हुआ है और इस पोस्ट में आरटीआई के तहत मिली जानकारी के जरिए दावा किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मोरबी यात्रा से पहले 30 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। पोस्ट में 30 करोड़ रुपये किन मदों में खर्च किए गए, उसकी भी जानकारी दी गई है।

सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर यूजर्स साकेत गोखले के ट्वीट के स्क्रीशॉट को समान दावे के साथ वायरल कर रहे हैं।

पड़ताल

ट्विटर पर साकेत गोखले का यह ट्वीट (आर्काइव लिंक)अभी भी मौजूद है, जिसमें उन्होंने आरटीआई से मिली जानकारी के जरिए दावा किया है कि मोदी के मोरबी विजिट से पहले 30 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे।

गोखले ने अपने ट्विटर पोस्ट में किसी गुजराती समाचार पत्र में छपी खबर के स्क्रीनशॉट का इस्तेमाल किया है। ट्विटर यूजर्स दक्ष पटेल ने पेपर के स्क्रीनशॉट को शेयर करते हुए एक ट्विटर यूजर के पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए इसे ‘गुजरात समाचार’ में छपी खबर बताया है।

हालांकि अब इस ट्वीट को डिलीट किया जा चुका है, जिसके आर्काइव लिंक को यहां देखा जा सकता है। वायरल पोस्ट में गुजराती अखबार की क्लिप लगी हुई है, जिसे हमने गूगल लेंस की मदद से ट्रांसलेट किया।

गूगल लेंस की मदद से गुजराती समाचारपत्र के वायरल स्क्रीनशॉट का किया गया अनुवाद

विश्वास न्यूज ने न्यूजपेपर की वायरल क्लिप को लेकर गुजरात समाचार के संपादक परीक्षित जोशी से संपर्क किया। ऐसी किसी खबर के गुजरात समाचार में प्रकाशित होने के दावे को खारिज करते हुए जोशी ने कहा, ”यह फेक न्यूज है। गुजरात समाचार ऐसी किसी भी खबर के छापे जाने के दावे का खंडन करता है।”

उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की तरफ से भी इस दावे का खंडन किया गया है। गुजरात बीजेपी के ट्विटर हैंडल से इस दावे का खंडन करते हुए तृणमूल कांग्रेस को झूठे लोगों की पार्टी बताया गया है।

न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात के मोरबी में पुल हादसे में करीब 140 लोगों की मौत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोरबी का दौरा किया था और इस दौरान उन्होंने अहमदाबाद में अधिकारियों के साथ एक उच्च स्तरीय बैठक भी की थी।

मोरबी पुल हादसे के बाद अहमदाबाद में उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Image-PTI)

वायरल पोस्ट में मोरबी स्थानीय प्रशासन की तरफ से खर्च कराए जाने के दावे का जिक्र है। इसलिए विश्वास न्यूज ने मोरबी के जिलाधिकारी जी टी पांड्या से संपर्क किया। उन्होंने कहा, ”जिलाधिकारी कार्यालय में ऐसा आरओआई क्या है? कोई आरटीआई दायर ही नहीं किया गया और जब आरटीआई दायर ही नहीं किया गया तो जवाब देने प्रश्न ही कहां है।” उन्होंने कहा कि यह क्रिएटेड यानी मनगढ़ंत तरीके से तैयार किया गया मामला है। पांड्या ने वायरल पोस्ट में खर्च के आंकड़ों का भी खंडन किया।

गौरतलब है कि गुजरात में दो चरणों के तहत आरओआई क्या है? चुनाव होना है। पहले चरण के तहत एक दिसंबर को मतदान हो चुका है और दूसरे चरण के तहत पांच दिसंबर को मतदान हो रहा है। ऐसे में वायरल दावा चुनावी दुष्प्रचार की श्रेणी में आता है, जिसका मकसद मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित करना होता है। गुजरात चुनाव के नतीजे आठ दिसंबर को आएंगे।

निष्कर्ष: आरओआई क्या है? आरटीआई के जवाब के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मोरबी यात्रा पर 30 करोड़ रुपये खर्च होने का दावा फेक और मनगढ़ंत है। मोरबी जिला प्रशासन ने इस आरओआई क्या है? दावे का खंडन करते हुए बताया है कि उसकी तरफ से ऐसे किसी आरटीआई का जवाब नहीं दिया गया और साथ ही इस दावे के साथ गुजरात समाचार में छपी खबर का स्क्रीनशॉट भी फेक और एडिटेड है।

"जो सिस्टम काम कर रहा है, उसे पटरी से न उतरने दें" : कॉलेजियम पर सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

जस्टिस शाह ने सुनवाई के दौरान कहा कि हम पूर्व सदस्यों द्वारा की गई किसी भी बात पर टिप्पणी नहीं करना चाहते हैं. अब कॉलेजियम के पूर्व सदस्यों का फैसलों पर टिप्पणी करना फैशन हो गया है.

कॉलेजियम के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने आज अहम टिप्पणी की.

कॉलेजियम के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने आज अहम टिप्पणी की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो सिस्टम काम कर रहा है, उसे पटरी से न उतरने दें. कॉलेजियम को अपना काम करने दें. हम सबसे पारदर्शी संस्थान हैं. कॉलेजियम के पूर्व सदस्यों का अब फैसलों पर टिप्पणी करना फैशन हो गया है. जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने ये टिप्पणी आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज की याचिका पर की.

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अंजलि भारद्वाज ने दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिसमें आरटीआई कानून के तहत 12 दिसंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की बैठक के एजेंडे, ब्योरे और प्रस्ताव की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया था. सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से पेश प्रशांत भूषण ने कहा, क्या कॉलेजियम के फैसले आरटीआई के तहत जवाबदेह हैं? यही सवाल है. क्या इस देश के लोगों को जानने का अधिकार नहीं है? कोर्ट ने ही कहा था कि आरटीआई मौलिक अधिकार है. अब सुप्रीम कोर्ट पीछे हट रहा है.

जस्टिस शाह ने जवाब दिया, उस कॉलेजियम की बैठक में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ. हम पूर्व सदस्यों द्वारा की गई किसी भी बात पर टिप्पणी नहीं करना चाहते हैं. अब कॉलेजियम के पूर्व सदस्यों का फैसलों पर टिप्पणी करना फैशन हो गया है. हम सबसे पारदर्शी संस्थान हैं. हम पीछे नहीं हट रहे हैं. बहुत से मौखिक फैसले लिए जाते हैं. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया.

दरअसल, दिल्ली हाईकोर्ट ने जुलाई 2022 में आरटीआई अधिनियम के तहत 12 दिसंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की बैठक के एजेंडे, ब्योरे और प्रस्ताव की मांग वाली अपील को खारिज कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में आवेदक, आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज को जानकारी देने से इनकार कर दिया था. इसके बाद वो दिल्ली हाईकोर्ट पहुंची थीं. मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद की पीठ ने कहा कि 10 जनवरी, 2019 के कॉलेजियम के प्रस्ताव का एक अवलोकन इंगित करता है कि 12 दिसंबर, 2018 को कॉलेजियम की बैठक
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति पर विचार आरओआई क्या है? करने के लिए हुई थी. साथ ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के ट्रांसफर के अन्य प्रस्तावों पर विचार होना था.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन आरओआई क्या है? गोगोई की आत्मकथा 'जस्टिस फॉर द जज' के अनुसार, राजस्थान हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस प्रदीप नंदराजोग और दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेंद्र मेनन के नाम 12 दिसंबर, 2018 को कॉलेजियम की बैठक में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए मंज़ूरी मिली थी.

किताब में कहा गया है कि यह मामला कथित रूप से लीक हो गया था, जिसके बाद 15 दिसंबर, 2018 को शुरू हुए शीतकालीन अवकाश के कारण इस मुद्दे को CJI गोगोई ने जनवरी 2019 तक के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया था. जनवरी 2019 में जस्टिस मदन बी लोकुर की सेवानिवृत्ति के बाद एक नए कॉलेजियम का गठन किया गया. किताब के मुताबिक नए कॉलेजियम ने 10 जनवरी, 2019 को अपने प्रस्ताव में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए जस्टिस नंदराजोग और जस्टिस मेनन के नामों को मंजूरी नहीं दी थी.

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