लाभ पद्धति

3. परिवर्तनों का लागत पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन - उत्पादन अथवा विक्रय मात्रा या विक्रय मिश्रण तथा उत्पादन या विक्रय पद्धति में किये जाने वाले परिवर्तनों का लागतों एवं लाभों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस विधि द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। इससे प्रबन्ध को नीति-निर्धारण तथा निर्णय लेने में सहायता मिलती है।
सीमांत लागत क्या है ? सीमांत लागत विधि के अंतर्गत लाभ की गणना
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जो अंतर आता है उसे सीमांत लागत कहते हैं। इसे निम्नलिखित सूत्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए 5 वस्तुओं की कुल लागत 135 रुपये हैं तथा 6 वस्तुओं की कुल लागत 180 रुपये है। अतएव छठी वस्तु की सीमांत लागत इस प्रकार निकाली जा सकती है।
मैकोनल के अनुसार, ‘‘सीमांत लागत की परिभाषा वस्तु की एक अधिक इकाई का उत्पादन करने की अतिरिक्त लागत के रूप में की जा सकती है’’
फर्गुसन के अनुसार, ‘‘उत्पादन में एक इकाई की वृद्धि करने से कुल लागत में जो वृद्धि होती है उसे सीमांत लागत कहते हैं।’
सीमांत लागत क्या है?
वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई निर्मित करने की लागत सीमांत लागत है। सीमांत लागत से आशय परिवर्तनशील लागतों अर्थात्, मूल लागत तथा परिवर्तनशील उपरिव्ययों के योग से है। प्रति इकाई सीमांत लागत उत्पादन के किसी भी स्तर पर राशि में हुए परिवर्तन से है जिससे कुल लागत में परिवर्तन होता है, यदि उत्पादन मात्रा लाभ पद्धति एक इकाई से बढ़ायी या घटाई जाती है।
इन्स्टीट्यूट ऑफ कास्ट एण्ड मैनेजमेंट एकाउन्टेन्ट्स, इंग्लैण्ड के अनुसार “सीमांत लागत विधि का आशय स्थायी लागत एवं परिवर्तशील लागत में अन्तर करके सीमांत लागत का लाभ पद्धति निर्धारण करना तथा उत्पादन की मात्रा अथवा किस्म में परिवर्तन का लाभ पर प्रभाव ज्ञात करने से है।”
सीमांत लागत विधि के अंतर्गत लाभ की गणना
सीमांत लागत विधि के अंतर्गत लाभ ज्ञात करने के लिए कुल लागत को स्थिर लागत व परिवर्तनशील लागत में विभाजित कर लिया जाता है। तत्पश्चात सीमांत लागत को विक्रय मूल्य में से घटा दिया जाता है। शेष राशि अंशदान (Contribution) कहलाती है। इस अंशदान में स्थिर लागतों को घटाकर लाभ ज्ञात कर लिया जाता है। निर्मित माल व चालू लाभ पद्धति कार्य के स्कन्ध का मूल्यांकन सीमांत लागत पर ही किया जाता है जिसमें किसी भी प्रकार लाभ पद्धति के स्थिर व्यय सम्मिलित नहीं होते है
सीमांत लागत निर्धारण विधि व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी तकनीक है। इसके प्रमुख लाभ, संक्षेप में हैं-
1. समझने में सरल - सीमांत लागत विधि समझने में सरल है। इसकी प्रक्रिया आसान है क्योंकि इसमें स्थायी लागतों को सम्मिलित नहीं किया जाता है, जिससे उनके अनुभाजन एवं अवशोषण की समस्या उत्पन्न नहीं होती। इसे प्रमाण लागत के साथ जोड़ा जा सकता है।
क्या है भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) योजना?
परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) के तहत भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (बीपीकेपी) के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है। बीपीकेपी योजना का उद्देश्य पारंपरिक स्वदेशी प्रथाएं जो बाहरी रूप से खरीदे गए आदानों को कम करती हैं को बढ़ावा देना है। यह काफी हद तक ऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग पर आधारित है, जो बायोमास मल्चिंग, ऑन-फार्म गाय गोबर-मूत्र का उपयोग; आवधिक मिट्टी का मिश्रण और सभी सिंथेटिक रासायनिक आदानों का बहिकार पर मुख्य जोर देता है। बीपीकेपी योजना मुख्य रूप से सभी सिंथेटिक रासायनिक आदानों के बहिष्कार पर जोर देती है और कृषि बायोमास रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देती है। गोबर-मूत्र के मिश्रण का उपयोग, भूमि की तैयारी के समय उपयोग आदि बातों को महत्व देती है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य रासायनिक उर्वरकों का कम से कम इस्तेमाल पर जोर देना है ताकि शून्य बजट पर खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा सके।
बीपीकेपी के तहत सरकार से कितनी मिलती है वित्तीय सहायता?
बीपीकेपी के तहत, क्लस्टर निर्माण, क्षमता निर्माण और प्रशिक्षित कर्मियों द्वारा प्रमाणीकरण और अवशेष विश्लेषण के लिए 12200 /- रुपए प्रति हेक्टेयर की वित्तीय सहायता प्रथम 3 वर्ष तक दी है। अब तक, प्राकृतिक खेती के तहत 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को कवर किया गया है और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश भर के 8 राज्यों में 4587.17 लाख रुपए जारी किए गए हैं।
प्राकृतिक खेती एक केमिकल-मुक्त अथवा पारंपरिक खेती विधि है। इसे कृषि-पारिस्थितिकी आधारित कृषि प्रणाली माना जाता है जो फसलों, पेडों और पशुधन को कियात्मक जैव विविधता के साथ एकीकृत करती है। प्राकृतिक खेती की शुरुआत एक जापानी किसान, मासानोबू फुकुओका द्वारा की गई थी, जो एक प्राकृतिक चक्र और प्राकृतिक दुनिया की प्रक्रियाओं के साथ काम करने के दर्शन पर आधारित है।
प्राकृतिक खेती से छोटी जोत के किसानों को मिलेगी मदद
एचएलपीई की रिपोर्ट अनुसार, प्राकृतिक खेती से खरीदे गए आदानों पर निर्भरता कम होगी और छोटी (जोत के) किसानों के ऋण के बोझ को कम करने में मदद मिलेगी। बीपीकेपी योजना पीजीएस इंडिया कार्यक्रम के तहत पीजीएस-इंडिया सर्टिफिकेशन के अनुरूप है। इस वित्तीय केंद्र सरकार ने बीपीकेपी योजना के लिए 8 राज्यों को करीब 45 करोड़ की राशि प्रदान की है।
भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम को मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और केरल राज्य में अपनाया गया है। कई अध्ययनों में भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम की प्रभावशीलता अर्थात् उत्पादन में वृद्धि, स्थिरता, जल उपयोग की बचत, मृदा स्वास्थ्य में सुधार और कृषि पारिस्थितिकी तंत्र के मामले में प्राकृतिक कृषि की सूचना दी गई है। इसे रोजगार संवर्धन और ग्रामीण के अवसर के साथ लागत प्रभावी कृषि पद्धतियों के रूप में माना जाता है। नीति आयोग ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के साथ मिलकर प्राकृतिक कृषि पद्धतियों पर वैश्विक विशेषज्ञों के साथ कई उच्च स्तरीय विचार-विमर्श किए जिसमें मोटे तौर पर यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में करीब 2.5 मिलियन किसान पहले से ही पुनरुत्पादक कृषि अपना रहे हैं। अगले 5 सालों मे, इसे प्राकृतिक खेती सहित जैविक खेती के किसी भी रूप में, 20 लाख हेक्टेयर तक पहुंचने का अनुमान है - जिसमें से बीपीकेपी के अधीन 12 लाख हेक्टेयर है। भारत ने जैविक खेती को बढ़ावा देकर महत्वपूर्ण छाप छोड़ी है। बता दें कि विश्व की जैविक खेती के संदर्भ में भारत का 9 वां स्थान है। भारत में जैविक खेती का रकबा 1.94 लमलियन हेक्टेयर क्षेत्र है। वहीं उत्पादकों की संख्या के संदर्भ में पहला (उत्पादक का 11.49 किसान) था, 2020 के आंकडों के अनुसार कुल निर्यात मूल्य 757.49 मिलियन अमेरिकी डालर है।
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जैविक खेती से अभिप्राय कृषि की ऐसी प्रणाली से है, जिसमें रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का प्रयोग न कर उसके स्थान पर जैविक खाद या प्राकृतिक खाद का प्रयोग किया जाए।यह कृषि की एक पारंपरिक विधि है, जिसमें भूमि की उर्वरता में सुधार होने के साथ ही पर्यावरण प्रदूषण भी कम होता है। जैविक खेती पद्धतियों को अपनाने से धारणीय कृषि, जैव विविधता संरक्षण आदि लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये किसानों को प्रशिक्षण देना महत्त्वपूर्ण है। सूखा, ऋणग्रस्तता और मृदा की घटती उत्पादकता के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिये जैविक खेती एक उपयोगी विकल्प हो सकती है। लेकिन जैविक खेती को लेकर एक सार्वजनिक भ्रम मौजूद है। जैविक खेती के संबंध में हमारी कल्पना महँगे तथा कथित गैर-रासायनिक रूप से उत्पन्न खाद्य उत्पादों तक सीमित है जो उत्पाद कुछ विशिष्ट खुदरा दुकानों पर उपलब्ध होते हैं।
पदसोपान - पदसोपान का अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकार, आधार, लाभ | padsopan kya hai
औपचारिक संगठन का सबसे महत्त्वपूर्ण तथा आधारभूत यदि कोई सिद्धान्त है तो वह है पद सोपान । यह ‘पदानुक्रम का सिद्धान्त', सीढ़ीनुमा प्रक्रिया, ‘पद श्रृंखला का सिद्धान्त' आदि नामों से भी जाना जाता हैं। प्रत्येक संगठन किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थापित होता है। संगठन की स्थापना के साथ संगठन की सम्पूर्ण कार्यपालिका शक्ति उसके मुख्य कार्यकारी में निहित कर दी जाती है। चूंकि मुख्य कार्यपालिका एकल रूप में सभी कार्यों और उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं कर सकती इसलिए विशिष्टीकरण के आधार पर कई इकाइयों और उप–इकाइयों के बीच कार्य एवं उत्तरदायित्व का विभाजन करती है।
संगठन को व्यवस्थित रूप देने एवं सुगमतापूर्वक कार्य संचालन हेतु लाभ पद्धति इन इकाइयों और उप–इकाईयों को उच्च अधीनस्थ पीनस्थ शृंखला में व्यवस्थित किया जाता है, जिसके कारण संगठन में आदेश देने एवं पालन करने के तथा उत्तरदायित्व के कई स्तर निर्मित हो जाते हैं, परिणामस्वरूप इन स्तरों पर कार्य करने वाले अधिकारियों के बीच उच्च–अधीनस्थ सम्बन्धों की एक श्रृंखला विकसित हो जाती है जिसे पदसोपान कहते हैं।
पदसोपान का अर्थ एवं परिभाषा
पदसोपान अंग्रेजी के 'Hierarchy' का हिन्दी रूपान्तरण लाभ पद्धति है। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, इसका शाब्दिक अर्थ है "निम्न पर उच्च का नियंत्रण या सत्तापद सोपान को अनेक विद्वानों ने व्यवस्थित रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है जो अग्रलिखित है-
"पदसोपान लाभ पद्धति संरचना में ऊपर से नीचे तक उत्तरदायित्वों के कई स्तरों के कारण उत्पन्न वरिष्ठ – अधीनस्थ का वह सम्बन्ध है, जो सब जगह लागू होता है।"
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा लाभ पद्धति जा सकता है कि लोक प्रशासन में पदसोपान का अर्थ एक ऐसे बहुस्तरीय संगठन से है, जिसमें उच्च अधीनस्थ शृंखला में जुड़े हुए क्रमवार कई स्तर होते हैं।
पदसोपान की विशेषताएँ
पद सोपान संगठन के सभी क्रिया कलापों को विशिष्टीकरण एवं श्रम विभाजन के आधार पर इकाइयों और उप इकाइयों में विभाजित करता है।
यह पद्धति संगठन को पिरामिडनुमा आधार प्रदान करती है, जिसमें संगठन का शीर्ष नुकीला और तल फैला हुआ होता है।
पद सोपान पर आधारित संगठन उचित माध्यम से कार्य सिद्धान्त का पालन करता है। सभी आदेश तथा सूचनाएं सभी स्तरों से क्रमवार रूप में गुजरती हैं और किसी भी स्तर लाभ पद्धति की अनुल्लंघनीयता स्वीकार नहीं होती।
किसानों को क्या मिलेगा लाभ
पोर्टल पर प्राकृतिक खेती अपनाने वाले इच्छुक किसान अपना पंजीकरण कर विभिन्न स्कीमों का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। राज्य प्राकृतिक खेती व टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत है। इस दिशा में विभाग ने प्राकृतिक खेती पर एक व्यापक योजना तैयार की है। प्राकृतिक खेती के लिए पंजीकृत किसानों को इस सम्बन्ध में प्रशिक्षित व प्रोत्साहित किया जाएगा और योजना के तहत किसानों को उनके उत्पाद प्रमाणीकरण, विपणन व ब्रांडिग में सहायता दी जाएगी।
राज्य में प्राकृतिक खेती अपनाने वाले किसानों को http://agriharyana.gov.in पर पंजीकरण कराना अनिवार्य है। पोर्टल पर पंजीयन होने के बाद ही किसानों को सरकार के द्वारा चल रही योजनाओं का लाभ दिया जायेगा। अधिक जानकारी के लिए किसान टोल फ्री नंबर 1800-180-2117 पर कॉल कर सकते हैं।